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शुक्रवार, 13 जून 2025

गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र भावार्थ के साथ

                   गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र भावार्थ के साथ


गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र श्रीमद्भागवत महापुराण के अष्टम स्कंध में आता है। इसमें एक गजराज (हाथी) संकट में पड़कर भगवान विष्णु से प्रार्थना करता है। यह स्तोत्र बहुत प्रभावशाली है और संकट के समय भगवान की शरणागति का सर्वोत्तम उदाहरण है।

यहाँ गजेंद्र द्वारा किया गया स्तोत्र दिया गया है:

गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र

श्रीगजेंद्र उवाच—

ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम्।
पुरुषायादि-बीजाय पारेसायाभिधीमहि ॥१॥

यस्येच्छया ततः सृष्टं येनैव पतितं स्वयम्।
यस्मिन् चोत्तिष्ठते चैदं यस्मिंश्चायतमेश्वरम्॥२॥

योऽन्तः प्रविशतं ज्ञात्वा बीजं सन्तान-कारणम्।
सर्वेषां जीवनामेष सततम्परिपश्यति॥३॥

तं आत्मानं स्वयंज्योतिर्निर्मलं परमं विभुम्।
निर्गुणं गुणभोक्‍त्रं च मनीषिणो मे गतिं विदुः॥४॥

न यं विदन्ति तत्त्वेन तास्य शक्त्यः स्वपारगाः।
स एको भाव्यवस्तुत्वाद् विभत्यैक: स्वराडिव॥५॥

देहमनः प्राणदृशो भूतैर्महदादिभिः।
स्वकर्मक्लेशसंयुक्तमात्मानं मन्यतेऽवितः॥६॥

स ईश्वर: मे भगवाञ्छास्त्रचक्षुरनावृतः।
अनन्तोऽन्यानुपश्यन् मां आत्मस्थोऽनुविधीयताम्॥७॥

नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्तद्
नमः परेभ्योऽथ च दक्षिणायै।
नमः क्षिप्रैः पथि भूम्याश्चोर्ध्वं
नमोन्तर्हित एष सर्वतः॥८॥

सर्वात्मकः सर्वगतोऽप्यजस्रं
सर्वेन्द्रियाणां करणं न गूढः।
सर्वेषु भूतेषु गुणानुवृत्तो
गुणाश्रयो निर्गुण एष आद्यः॥९॥

काला: स्वभावो नियति: सृष्टिस्तपः
सम्भाव्य आत्मा मनसो परस्य।
जन्मापवर्गौ व्रजतामतिष्ठन्
नान्योऽतोऽस्यार्हति भूयसे वः॥१०॥

स नः समीरस्त्वजसाभिपन्नो
निर्हार्य मायागुणभोत्रदीर्घः।
संसारचक्रं भगवन् निरीह
भोक्तुं प्रपन्नमपवर्गमृच्छ॥११


यह रहा गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र का भावपूर्ण हिंदी अर्थ, जो भगवान विष्णु से गजराज द्वारा की गई मार्मिक प्रार्थना है:

गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र – हिंदी भावार्थ सहित

गजेंद्र ने कहा:

१.
ॐ मैं उस परमेश्वर को नमस्कार करता हूँ, जो समस्त चेतन तत्वों का आधार है, जो पुरुष (परमात्मा) है, जो समस्त सृष्टि का आदिकारण है और जो इस संपूर्ण जगत का स्वामी है।

२.
जिनकी इच्छा से यह संसार उत्पन्न हुआ, जिसमें यह स्थित है और जिसमें अन्त में विलीन हो जाता है, उन्हीं परमेश्वर का मैं ध्यान करता हूँ।

३.
जो सबके भीतर स्थित हैं, जो सबके जीवन का कारण हैं, और जो सदा सभी जीवों का निरीक्षण करते रहते हैं – वे ही परमात्मा मेरी शरण हैं।

४.
वे आत्मा स्वयं प्रकाशमान हैं, निर्मल हैं, परम विभु (सर्वव्यापक) हैं, गुणों से रहित होते हुए भी जो गुणों का उपभोग करते हैं – मुनिजन उन्हीं को अपनी गति (परम लक्ष्य) मानते हैं।

५.
जिन्हें उनकी ही शक्तियाँ (प्रकृति, माया आदि) पूर्णतः नहीं जान सकतीं – वे एकमात्र सत्यस्वरूप हैं और अपनी महिमा से अनेक रूपों में प्रकट होते हैं।

६.
जो अज्ञानी जीव आत्मा को शरीर, मन, प्राण और इन्द्रियों से युक्त समझते हैं – यह भ्रांति ही संसार की जड़ है।

७.
हे ईश्वर! आप ही मेरे शास्त्रस्वरूप नेत्र हैं, आप ही सर्वत्र व्याप्त हैं, आप ही सर्वज्ञ हैं – कृपा करके मुझ पर दृष्टि डालें और मुझे इस संकट से मुक्त करें।

८.
आपको मैं आगे, पीछे, दाएँ, बाएँ, ऊपर, नीचे और चारों ओर नमस्कार करता हूँ – क्योंकि आप सबमें समाए हुए हैं और फिर भी सबसे परे हैं।

९.
आप ही सर्वव्यापक हैं, आप समस्त इन्द्रियों के मूल कारण हैं, आप स्वयं कभी अदृश्य नहीं होते, बल्कि सब कुछ देख रहे होते हैं। गुणों में स्थित होकर भी आप निर्गुण हैं।

१०.
काल, स्वभाव, नियम, सृष्टि, तपस्या, आत्मा और मन – ये सब आपके ही अंश हैं। जन्म और मोक्ष भी आपके अधीन हैं। आपसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है।

११.
हे प्रभो! मैं माया और कर्म के इस जाल में फँस गया हूँ। आप ही मुझे इस संसार-चक्र से मुक्त करें। मैं आपकी शरण में आया हूँ – आप मुझे मोक्ष प्रदान करें।



बुधवार, 4 जून 2025

निर्जला एकादशी

                         निर्जला एकादशी 


निर्जला एकादशी हिंदू धर्म में सबसे पुण्यकारी और कठिन एकादशी मानी जाती है। यह ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को आती है, और इस दिन व्रत रखने वाला व्यक्ति बिना जल के (निर्जल) उपवास करता है, इसलिए इसका नाम "निर्जला एकादशी" पड़ा है।

📅 निर्जला एकादशी 2025 में कब है?

तारीख: शनिवार, 7 जून 2025
पारण समय: 8 जून को प्रातः पारण किया जाता है (सूर्योदय के बाद)

🌸 व्रत का महत्व:

  • यह एकादशी भीमसेनी एकादशी भी कहलाती है, क्योंकि महाभारत के भीम ने इसी एकादशी का व्रत किया था।
  • जो व्यक्ति वर्ष भर की सभी एकादशियों का व्रत नहीं कर पाता, यदि वह सिर्फ निर्जला एकादशी का विधिपूर्वक पालन करे, तो उसे सभी एकादशियों का फल प्राप्त होता है।
  • इस दिन व्रती को जल तक ग्रहण नहीं करना होता — यह व्रत शारीरिक और मानसिक तप का प्रतीक है।

🪔 व्रत विधि:

  1. प्रातः स्नान कर व्रत का संकल्प लें।
  2. श्री हरि विष्णु की पूजा करें — तुलसी पत्र, पीले फूल, फल अर्पित करें।
  3. व्रत के दौरान जल और अन्न का त्याग करें (संकल्प अनुसार)।
  4. रात्रि में जागरण करें और भगवान विष्णु का भजन-कीर्तन करें।
  5. द्वादशी को सूर्योदय के बाद पारण करें (जरूरतमंदों को भोजन या दान देना पुण्यकारी होता है)।

🙏 विशेष लाभ:

  • पापों से मुक्ति
  • जल से वंचित जीवों की पीड़ा को महसूस कर सहानुभूति का विकास
  • आत्म-नियंत्रण और प्रभु भक्ति में दृढ़ता
  • मृत्यु के बाद वैकुण्ठ धाम की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करता है।
  • ।।ॐ नमः भगवते वासुदेवाय।।


सोमवार, 2 जून 2025

जब मन बहुत दुखी हो निराश हो तो क्या करें?

     जब मन बहुत दुखी हो निराश हो तो क्या करें?


जब मन बहुत दुखी और निराश होता है, तो वह स्थिति भीतर से हिला देती है — ऐसा लगता है जैसे कोई सहारा नहीं है, कोई रास्ता नहीं है। यह एक गहरी पीड़ा होती है। लेकिन यही समय होता है जब आत्मा सच में ईश्वर के सबसे पास होती है। इस स्थिति में कुछ बातें मदद कर सकती हैं:

🌼 1. ठाकुर जी (ईश्वर) से सीधा संवाद करें

आप उनसे रोकर, बोलकर, मन में या आंखें बंद करके बात करें जैसे एक मित्र से करती हैं।
कुछ कहें जैसे:

"ठाकुर जी, मैं बहुत थक गई हूं… आप ही सहारा हैं। मुझे अपनी गोदी में ले लीजिए।"

जब आप उनका नाम लेकर सच्चे मन से पुकारती हैं, तो कुछ न कुछ भीतर जरूर बदलता है।

🧘 2. गहरी सांस लें और शांत बैठें (मन को थामें नहीं, देखें)

मन को रोकने की कोशिश मत करें, बस देखिए — "हां, दुख है... निराशा है..."
लेकिन साथ ही खुद से कहें:

"मैं इस दुख नहीं हूं, मैं इसे देख रही हूं — इसका गवाह हूं।"

यह अभ्यास धीरे-धीरे आपको उस आत्मा से जोड़ता है जो अजर-अमर है, शांत है।

📿 3. नाम स्मरण करें (जप)

जो नाम आपके हृदय को शांति देता है, उसका जप करें। जैसे:

  • "श्रीकृष्ण गोविंद हरे मुरारे, हे नाथ नारायण वासुदेव"
  • "राम राम राम…"
  • "ॐ नमः भगवते वासुदेवाय"

नाम में शक्ति है, यह मन की गंदगी धो देता है।

📖 4. कुछ शांति देने वाले भक्ति ग्रंथ पढ़ें

जैसे:

  • भागवत गीता (विशेषकर अध्याय 2, श्लोक 47-70)
  • रामचरितमानस के सुंदरकांड या अरण्यकांड
  • व्रज की लीलाएं, जैसे मीरा, सूरदास की रचनाएं

🌄 5. प्रकृति के पास जाएं

अगर संभव हो तो सुबह या शाम अकेले टहलें, किसी पेड़ के पास बैठें।
प्रकृति भी भगवान का ही स्वरूप है, वह मन को गहराई से शांति देती है।

🫶 6. मन की बात किसी भरोसेमंद से साझा करें

कभी-कभी मन की गांठ सिर्फ बोल देने से खुल जाती है। अगर कोई नहीं है, तो डायरी में लिखें, या मुझसे भी बात कर सकती हैं — मैं हमेशा सुनूंगी, बिना कोई निर्णय लिए।

🙏 7. आत्मा से बात करें — "मैं क्यों आई हूं?"

यह प्रश्न अपने आप से करें:

"क्या मैं सिर्फ दुख सहने आई हूं? या ठाकुर जी से मिलने?"

आपको जवाब मिलेगा — "मैं उसी प्रभु से मिलने आई हूं, और यह दुख मेरे मार्ग को साफ करने आया है।"

एक अंतिम बात:

दुख हमेशा बीत जाता है।
जैसे रात बीतती है, वैसे ही यह समय भी जाएगा।
आप अकेले नहीं हैं — ठाकुर जी हर पल साथ हैं, बस उनसे एक बार पुकार भर लें।

अगर आप चाहें, मैं आपको रोज़ या हर हफ्ते एक छोटा-सा "ध्यान वाक्य" या "प्रेम पत्र ठाकुर जी को" भेज सकती हूँ जो आपके मन को शांति देगा।मुझे कमेंट करके बताइए।

।।जय श्री राधे।।

सोमवार, 26 मई 2025

आदित्य हृदय स्तोत्र के अंतिम श्लोकों (21 से 31) के सरल हिंदी अर्थ:

 आदित्य हृदय स्तोत्र के अंतिम श्लोकों (21 से 31) के सरल हिंदी अर्थ:


21.
तप्तचामीकराभाय वह्नये विश्वकर्मणे।
नमस्तमभिनिघ्नाय रूचये लोकसाक्षिणे॥


अर्थ: तपे हुए सोने के समान तेज वाले, अग्निस्वरूप, सृष्टिकर्ता, अंधकार को नष्ट करने वाले, प्रकाशस्वरूप, और समस्त लोकों के साक्षी स्वरूप सूर्य को नमस्कार है।

22.
नाशयत्येष वै भूतं तदेव सृजति प्रभुः।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः॥


अर्थ: यह प्रभु सूर्य ही प्राणियों का नाश करते हैं, वही उन्हें फिर उत्पन्न करते हैं। यह पालन करते हैं, तपन देते हैं और किरणों से वर्षा कराते हैं।

23.
एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः।
एष एवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्॥


अर्थ: जब सब सोते हैं, तब यह सूर्य जागते हैं। सभी प्राणियों में स्थित रहते हैं। यह अग्निहोत्र (यज्ञ) भी हैं और अग्निहोत्र करने वालों को फल देने वाले भी।

24.
वेदाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्व एष रविः प्रभुः॥


अर्थ: वेद, यज्ञ, उनके फल और संसार में किए जाने योग्य समस्त कर्म – ये सब कुछ यह सूर्य देव ही हैं।

25.
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च।
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव॥


अर्थ: हे राघव! संकटों, विपत्तियों, वन के भय और कठिन परिस्थितियों में जो व्यक्ति इस सूर्य का स्मरण करता है, वह कभी दुखी नहीं होता।

26.
पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम्।
एतत् त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयी भव॥


अर्थ: इस सूर्यदेव – देवताओं के देव, जगत्पति की एकाग्र होकर पूजा करो। इस स्तोत्र को तीन बार जप कर तुम युद्ध में निश्चित ही विजय प्राप्त करोगे।

27.
अस्मिन्क्षणे महाबाहो रावणं त्वं वधिष्यसि।
एवमुक्त्वा तदागस्त्यो जगाम च यथागतम्॥


अर्थ: हे महाबाहु राम! इस क्षण तुम रावण का वध करोगे – ऐसा कहकर अगस्त्य ऋषि वहाँ से चले गए।

28.
एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत्तदा।
धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतः शुचिः॥


अर्थ: यह सुनकर महान तेजस्वी राम का शोक नष्ट हो गया। वे अत्यंत प्रसन्न और शुद्ध चित्त होकर इसे ग्रहण करने लगे।

29.
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वा तु परं हर्षमवाप्तवान्।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान्॥


अर्थ: आदित्य (सूर्य) की ओर देखकर राम ने स्तोत्र का जप किया और महान हर्ष से भर गए। तीन बार आचमन करके शुद्ध होकर अपने धनुष को उठाया।

30.
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा युद्धाय समुपागमत्।
सर्वयत्नेन महता वधे तस्य धृतोऽभवत्॥


अर्थ: फिर प्रसन्न चित्त से रावण को देखकर राम युद्ध के लिए आगे बढ़े और उसे मारने के लिए पूर्ण यत्नपूर्वक दृढ़ निश्चय कर लिया।

31.
अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं
मुदितमनाः परमं प्रहृष्यमाणः।
निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा
सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति॥

अर्थ: तब सूर्यदेव राम को देखकर हर्षित हुए, अत्यंत प्रसन्न मन से देवताओं के मध्य बोले – अब निशाचरों के राजा (रावण) का अंत निश्चित है।

रविवार, 25 मई 2025

आदित्य हृदय स्तोत्र के अगले श्लोकों के अर्थ (11 से 20 तक

आदित्य हृदय स्तोत्र के अगले श्लोकों के अर्थ (11 से 20 तक



11.
हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान्।
तिमिरोन्मथनः शम्भुस्त्वष्टा मार्ताण्ड अंशुमान्॥


अर्थ: सूर्य हरित रंग के घोड़ों वाले हैं, सहस्र किरणों वाले हैं, जिनकी सात घोड़े हैं, जो किरणों से युक्त हैं। अंधकार को नष्ट करने वाले, कल्याण स्वरूप, सृष्टिकर्ता, मार्तण्ड (सूर्य का नाम) और प्रकाशमान हैं।

12.
हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनो भास्करो रविः।
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शङ्खः शिशिरनाशनः॥


अर्थ: सूर्य हिरण्यगर्भ, शिशिर (शीत) को हरने वाले, तपन करने वाले, प्रकाशवान, अग्निस्वरूप, अदिति के पुत्र, शंखवर्ण के और सर्दी को दूर करने वाले हैं।

13.
व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजुःसामपारगः।
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवङ्गमः॥


अर्थ: ये आकाश के स्वामी हैं, अंधकार को दूर करते हैं, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद के ज्ञाता हैं। ये बादलों से वर्षा कराते हैं, जल के मित्र हैं और विन्ध्याचल के मार्ग से चलते हैं।

14.
आतपी मण्डली मृत्युः पिङ्गलः सर्वतापनः।
कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोद्भवः॥


अर्थ: ये सूर्य आतपी (तीव्र तपन करने वाले), मण्डलाकार, मृत्यु के समान शक्तिशाली, तांबई रंग के, सबको ताप देने वाले, कवी (ज्ञानी), विश्व रूप, महान तेजस्वी, रक्त वर्ण के और समस्त जगत के उत्पत्तिकर्ता हैं।

15.
नक्षत्रग्रहताराणां अधिपो विश्वभावनः।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते॥


अर्थ: नक्षत्रों, ग्रहों और तारों के स्वामी, सम्पूर्ण विश्व की भावना (संरचना) करने वाले, सभी तेजस्वियों में श्रेष्ठ, बारह रूपों (द्वादश आदित्य) में स्थित आपको नमस्कार है।

16.
नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः॥


अर्थ: पूर्व दिशा के पर्वत को नमस्कार, पश्चिम के पर्वत को नमस्कार, ज्योतिर्मय गणों के स्वामी और दिन के अधिपति (सूर्य) को नमस्कार है।

17.
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः।
नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः॥


अर्थ: विजयी और शुभता देने वाले, हरित अश्वों वाले, हजारों किरणों से युक्त आदित्य को बारम्बार नमस्कार है।

18.
नम ऊग्राय वीराय सारङ्गाय नमो नमः।
नमः पद्मप्रबोधाय मार्तण्डाय नमो नमः॥


अर्थ: उग्र (प्रचण्ड) रूप वाले, वीर्यवान, किरण रूपी सारंग वाले, कमलों को खिलाने वाले मार्तण्ड (सूर्य) को नमस्कार है।

19.
ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूर्यायादित्यवर्चसे।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः॥


अर्थ: ब्रह्मा, ईश, अच्युत (विष्णु), सूर्य, आदित्यवर्चस्वी, तेजस्वी, सर्वभक्षी (सभी को अपने में समाहित करने वाले), रौद्र रूप वाले आपको नमस्कार है।

20.
तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः॥


अर्थ: अंधकार को नष्ट करने वाले, शीत को हरने वाले, शत्रुओं का नाश करने वाले, अनन्त आत्मा वाले, कृतघ्नों का विनाश करने वाले, देवों के देव, प्रकाश के स्वामी को नमस्कार है।


आदित्या हृदय स्त्रोत का हिंदी में अर्थ

         आदित्या हृदय स्त्रोत का हिंदी में अर्थ



यह रहा आदित्य हृदय स्तोत्र का श्लोक-दर-श्लोक सरल हिंदी अर्थ 

1.
ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्।
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्॥

अर्थ: तब युद्ध से थके हुए और रावण को सामने खड़ा देखकर युद्ध के लिए तैयार राम, चिन्ता में डूबे हुए थे।

2.
दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्।
उपगम्याब्रवीद्राममगस्त्यो भगवान् ऋषिः॥

अर्थ: तब देवता युद्ध देखने के लिए आये और भगवान् अगस्त्य ऋषि राम के पास आकर बोले।

3.
राम राम महाबाहो शृणु गुह्यं सनातनम्।
येन सर्वानरीन्वत्स समरे विजयिष्यसि॥

अर्थ: हे राम! हे महाबाहो! एक गुप्त और सनातन रहस्य सुनो जिससे तुम युद्ध में शत्रुओं पर विजय प्राप्त करोगे।

4.
आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।
जयावहं जपेन्नित्यं अक्षय्यं परमं शिवम्॥

अर्थ: यह ‘आदित्य हृदय स्तोत्र’ पुण्यदायक, सभी शत्रुओं का नाश करने वाला, विजय देने वाला और अक्षय, परम मंगलमय स्तोत्र है। इसका नित्य जप करो।

5.
सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।
चिन्ताशोकप्रशमनं आयुरारोग्यमैश्वर्यम्॥

अर्थ: यह स्तोत्र सारे मंगलों में श्रेष्ठ, सभी पापों का नाश करने वाला, चिन्ता और शोक को शांत करने वाला, आयु, आरोग्य और ऐश्वर्य देने वाला है।

6.
नमः सूर्याय शान्ताय सर्वरोग निवारिणे।
आयुरारोग्यमैश्वर्यं देहि मे जगतां पते॥

अर्थ: शान्त, रोगों को दूर करने वाले सूर्य देव को नमस्कार है। हे जगत्पति! मुझे आयु, आरोग्य और ऐश्वर्य प्रदान कीजिए।

7.
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्॥

अर्थ: किरणों से युक्त, उदय होते हुए, देवताओं और असुरों द्वारा पूजित सूर्य देव – विवस्वान, भास्कर और भुवनपति की पूजा करो।

8.
सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः।
एष देवासुरगणांल्लोकान् पाति गभस्तिभिः॥

अर्थ: यह तेजस्वी सूर्य सभी देवताओं का आत्मस्वरूप है, और अपनी किरणों से देवता, असुर तथा समस्त लोकों की रक्षा करता है।

9.
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः॥

अर्थ: यही सूर्य ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इन्द्र, कुबेर, काल, यम, सोम (चन्द्र) और वरुण हैं।

10.
पितरो वसवः साध्या ह्यश्विनौ मरुतो मनुः।
वायुर्वह्निः प्रजाः प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः॥

अर्थ: यह सूर्य पितर, वसु, साध्यगण, अश्विनीकुमार, मरुतगण, मनु, वायु, अग्नि, प्रजाएँ, प्राण, ऋतु बनाने वाले तथा प्रकाशदाता प्रभाकर हैं।


आदित्य हृदय स्त्रोत

                     आदित्य हृदय स्त्रोत 


आदित्य हृदय स्तोत्र एक अत्यंत शक्तिशाली और पवित्र स्तोत्र है, जो भगवान सूर्य नारायण को समर्पित है। इसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड में आता है, जहाँ महर्षि अगस्त्य श्रीराम को यह स्तोत्र युद्ध में विजय प्राप्ति के लिए बताते हैं।

  • यह स्तोत्र मानसिक शांति प्रदान करता है।
  • रोगों से मुक्ति दिलाता है।
  • विजय, शक्ति और आत्मविश्वास प्रदान करता है।
  • सूर्य भगवान की कृपा से जीवन में प्रकाश आता है।

                  

                        ॥ आदित्य हृदय स्तोत्रम् ॥


ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्।
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्॥ 1॥

दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्।
उपगम्याब्रवीद्राममगस्त्यो भगवान् ऋषिः॥ 2॥

राम राम महाबाहो शृणु गुह्यं सनातनम्।
येन सर्वानरीन्वत्स समरे विजयिष्यसि॥ 3॥

आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।
जयावहं जपेन्नित्यं अक्षय्यं परमं शिवम्॥ 4॥

सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।
चिन्ताशोकप्रशमनं आयुरारोग्यमैश्वर्यम्॥ 5॥

रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्॥ 6॥

सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः।
एष देवासुरगणांल्लोकान् पाति गभस्तिभिः॥ 7॥

एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः॥ 8॥

पितरो वसवः साध्या ह्यश्विनौ मरुतो मनुः।
वायुर्वह्निः प्रजाः प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः॥ 9॥

आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान्।
सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः॥ 10॥

हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान्।
तिमिरोन्मथनः शम्भुस्त्वष्टा मार्ताण्ड अंशुमान्॥ 11॥

हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनो भास्करो रविः।
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शङ्खः शिशिरनाशनः॥ 12॥

व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजुःसामपारगः।
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवङ्गमः॥ 13॥

आतपी मण्डली मृत्युः पिङ्गलः सर्वतापनः।
कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोद्भवः॥ 14॥

नक्षत्रग्रहताराणां अधिपो विश्वभावनः।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते॥ 15॥

नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः॥ 16॥

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः।
नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः॥ 17॥

नम ऊग्राय वीराय सारङ्गाय नमो नमः।
नमः पद्मप्रबोधाय मार्तण्डाय नमो नमः॥ 18॥

ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूर्यायादित्यवर्चसे।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः॥ 19॥

तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः॥ 20॥

तप्तचामीकराभाय वह्नये विश्वकर्मणे।
नमस्तमभिनिघ्नाय रूचये लोकसाक्षिणे॥ 21॥

नाशयत्येष वै भूतं तदेव सृजति प्रभुः।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः॥ 22॥

एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः।
एष एवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्॥ 23॥

वेदाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्व एष रविः प्रभुः॥ 24॥

एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च।
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव॥ 25॥

पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम्।
एतत् त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयी भव॥ 26॥

अस्मिन्क्षणे महाबाहो रावणं त्वं वधिष्यसि।
एवमुक्त्वा तदागस्त्यो जगाम च यथागतम्॥ 27॥

एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत्तदा।
धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतः शुचिः॥ 28॥

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वा तु परं हर्षमवाप्तवान्।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान्॥ 29॥

रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा युद्धाय समुपागमत्।
सर्वयत्नेन महता वधे तस्य धृतोऽभवत्॥ 30॥

अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं
मुदितमनाः परमं प्रहृष्यमाणः।
निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा
सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति॥ 31॥



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