गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र भावार्थ के साथ
गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र श्रीमद्भागवत महापुराण के अष्टम स्कंध में आता है। इसमें एक गजराज (हाथी) संकट में पड़कर भगवान विष्णु से प्रार्थना करता है। यह स्तोत्र बहुत प्रभावशाली है और संकट के समय भगवान की शरणागति का सर्वोत्तम उदाहरण है।
यहाँ गजेंद्र द्वारा किया गया स्तोत्र दिया गया है:
गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र
श्रीगजेंद्र उवाच—
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम्।
पुरुषायादि-बीजाय पारेसायाभिधीमहि ॥१॥
यस्येच्छया ततः सृष्टं येनैव पतितं स्वयम्।
यस्मिन् चोत्तिष्ठते चैदं यस्मिंश्चायतमेश्वरम्॥२॥
योऽन्तः प्रविशतं ज्ञात्वा बीजं सन्तान-कारणम्।
सर्वेषां जीवनामेष सततम्परिपश्यति॥३॥
तं आत्मानं स्वयंज्योतिर्निर्मलं परमं विभुम्।
निर्गुणं गुणभोक्त्रं च मनीषिणो मे गतिं विदुः॥४॥
न यं विदन्ति तत्त्वेन तास्य शक्त्यः स्वपारगाः।
स एको भाव्यवस्तुत्वाद् विभत्यैक: स्वराडिव॥५॥
देहमनः प्राणदृशो भूतैर्महदादिभिः।
स्वकर्मक्लेशसंयुक्तमात्मानं मन्यतेऽवितः॥६॥
स ईश्वर: मे भगवाञ्छास्त्रचक्षुरनावृतः।
अनन्तोऽन्यानुपश्यन् मां आत्मस्थोऽनुविधीयताम्॥७॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्तद्
नमः परेभ्योऽथ च दक्षिणायै।
नमः क्षिप्रैः पथि भूम्याश्चोर्ध्वं
नमोन्तर्हित एष सर्वतः॥८॥
सर्वात्मकः सर्वगतोऽप्यजस्रं
सर्वेन्द्रियाणां करणं न गूढः।
सर्वेषु भूतेषु गुणानुवृत्तो
गुणाश्रयो निर्गुण एष आद्यः॥९॥
काला: स्वभावो नियति: सृष्टिस्तपः
सम्भाव्य आत्मा मनसो परस्य।
जन्मापवर्गौ व्रजतामतिष्ठन्
नान्योऽतोऽस्यार्हति भूयसे वः॥१०॥
स नः समीरस्त्वजसाभिपन्नो
निर्हार्य मायागुणभोत्रदीर्घः।
संसारचक्रं भगवन् निरीह
भोक्तुं प्रपन्नमपवर्गमृच्छ॥११
यह रहा गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र का भावपूर्ण हिंदी अर्थ, जो भगवान विष्णु से गजराज द्वारा की गई मार्मिक प्रार्थना है:
गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र – हिंदी भावार्थ सहित
गजेंद्र ने कहा:
१.
ॐ मैं उस परमेश्वर को नमस्कार करता हूँ, जो समस्त चेतन तत्वों का आधार है, जो पुरुष (परमात्मा) है, जो समस्त सृष्टि का आदिकारण है और जो इस संपूर्ण जगत का स्वामी है।
२.
जिनकी इच्छा से यह संसार उत्पन्न हुआ, जिसमें यह स्थित है और जिसमें अन्त में विलीन हो जाता है, उन्हीं परमेश्वर का मैं ध्यान करता हूँ।
३.
जो सबके भीतर स्थित हैं, जो सबके जीवन का कारण हैं, और जो सदा सभी जीवों का निरीक्षण करते रहते हैं – वे ही परमात्मा मेरी शरण हैं।
४.
वे आत्मा स्वयं प्रकाशमान हैं, निर्मल हैं, परम विभु (सर्वव्यापक) हैं, गुणों से रहित होते हुए भी जो गुणों का उपभोग करते हैं – मुनिजन उन्हीं को अपनी गति (परम लक्ष्य) मानते हैं।
५.
जिन्हें उनकी ही शक्तियाँ (प्रकृति, माया आदि) पूर्णतः नहीं जान सकतीं – वे एकमात्र सत्यस्वरूप हैं और अपनी महिमा से अनेक रूपों में प्रकट होते हैं।
६.
जो अज्ञानी जीव आत्मा को शरीर, मन, प्राण और इन्द्रियों से युक्त समझते हैं – यह भ्रांति ही संसार की जड़ है।
७.
हे ईश्वर! आप ही मेरे शास्त्रस्वरूप नेत्र हैं, आप ही सर्वत्र व्याप्त हैं, आप ही सर्वज्ञ हैं – कृपा करके मुझ पर दृष्टि डालें और मुझे इस संकट से मुक्त करें।
८.
आपको मैं आगे, पीछे, दाएँ, बाएँ, ऊपर, नीचे और चारों ओर नमस्कार करता हूँ – क्योंकि आप सबमें समाए हुए हैं और फिर भी सबसे परे हैं।
९.
आप ही सर्वव्यापक हैं, आप समस्त इन्द्रियों के मूल कारण हैं, आप स्वयं कभी अदृश्य नहीं होते, बल्कि सब कुछ देख रहे होते हैं। गुणों में स्थित होकर भी आप निर्गुण हैं।
१०.
काल, स्वभाव, नियम, सृष्टि, तपस्या, आत्मा और मन – ये सब आपके ही अंश हैं। जन्म और मोक्ष भी आपके अधीन हैं। आपसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है।
११.
हे प्रभो! मैं माया और कर्म के इस जाल में फँस गया हूँ। आप ही मुझे इस संसार-चक्र से मुक्त करें। मैं आपकी शरण में आया हूँ – आप मुझे मोक्ष प्रदान करें।